Gwalior Fort को मुग़ल बादशाह बाबर ने ‘हिंद के किले के हार का मोती’ क्यों कहा, जानिए किले के अनसुने पहलू

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मध्यप्रदेश के उत्तर में स्थित ग्वालियर अपनी स्थिति के कारण इतिहास में सर्वाधिक महत्व रखता है। यह क्षेत्र महाभारत काल में गोप राष्ट्र के नाम से जाना जाता था। कुंदनपुर के कछवाह वंशी राजा सूरज सेन ने 727 ईस्वी के लगभग इस ऐतिहासिक किले की नींव रखी। यहां इस राजवंश की 83 पीढ़ियों का शासन रहा। Gwalior Fort की पूरी कहानी द स्टोरी विंडो पर।

क्यों कहा गया Gwalior Fort को जिब्राल्टर?

Gwalior Fort को पूर्व का जिब्राल्टर कहा गया है, क्योंकि इस किले को कई सीधी लड़ाई में जीता नहीं जा सका। जब भी इस किले पर किसी आक्रमणकारी का कब्जा हुआ तो उसकी वजह विश्वासघात या सालों की घेराबंदी के बाद किले पर काबिज राजसत्ता का मजबूरी में किया गया समर्पण ही रहा था।

ग्वालियर किले पर कितने राजवंशों ने किया शासन?

यह किला अपने अंदर अनेक राजा और राजवंशों के उत्थान पतन को समेटे हुए है। मध्यकाल के प्रारम्भ से लेकर अंग्रेजी राज्य तक उत्तर भारत की राजनीति का  भी महत्वपूर्ण केंद्र रहा। इस किले पर कछवाह वंश के बाद गुर्जर प्रतिहार, तोमर, मुग़ल, सिंधिया जैसे बड़े और शक्तिशाली राजवंशों ने शासन किया।इन्हीं राजवंशों के राजाओं ने  इसके वर्तमान रूप को आकार दिया। किले के भीतर कई मंदिर, महल, इमारतों का निर्माण कराया जिससे इसकी भव्यता समय के साथ बढ़ती गई।

भारतीय स्थापत्य का बेजोड़ नमूना

गोपालचल नाम की छोटी पहाड़ी पर निर्मित यह  किला भारतीय स्थापत्य कला का शानदार उदाहरण है। इसका निर्माण बलुआ पत्थर से किया गया। यह करीब 2.4 कि. मी. लंबा वहीं 910 मी की औसत चौड़ाई में फैला हुआ है। इसकी प्राचीरो का विस्तार अधिकांशतः पहाडियों की चोटियों पर किया गया जो कहीं कहीं तो एक दम सीधी है। 12 किलोमीटर लंबी और 104 मीटर चौड़ी दीवारें इसे सुदृढ़ व सुरक्षित बनाती है। किले में प्रवेश के लिए पांच द्वार – आलमगीर , हिंडोला, गुजरी महल दरवाजा, चतुर्भुज मंदिर दरवाजा, हाथी फोड़ दरवाजा है ।

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ग्वालियर किले की महत्वपूर्ण इमारतें? 

ग्वालियर किले में निर्मित महत्वपूर्ण इमारतें है- मान मंदिर, गूजरी महल, तेली का मंदिर, बादल महल, चतुर्भुज मंदिर,सहस्त्र बाहु मंदिर आदि। ये सभी खूबसूरत इमारतें ग्वालियर शहर में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। भारत में मंदिर निर्माण की  तीन प्रमुख शैलियां पाई जाती – द्रविड़ शैली, नागर शैली,बेसर शैली।नागर शैली के मंदिर उत्तर भारत में और द्रविड़ शैली में निर्मित मंदिर दक्षिण भारत में पाए जाते, परंतु तेली का मंदिर उत्तर भारत में एक मात्र द्रविड़ शैली से निर्मित मंदिर है. भगवान विष्णु को समर्पित सहस्त्र बाहु मंदिर जिसे सास बहु के नाम से जाना जाता।  इस मंदिर का निर्माण 11 वीं शताब्दी के राजा महिपाल द्वारा 1093 ई. में कराया गया।

ग्वालियर किले का मानसिंह महल क्यों फेमस है?

इस किले की सबसे महत्वपूर्ण इमारत मान मंदिर महल जिसका निर्माण तोमर वंशी राजा मानसिंह के द्वारा 1486 से 1517 ई. के बीच कराया गया। सुंदर रंगीन टाइल्स से सजे इस महल की दीवारें अपने समय के भव्य सौंदर्यबोध को बयां करती है। इन रंगीन टाइल्स से निर्मित सुंदर कलाकृतियां आज भी पर्यटकों का मन मोह लेती है। इस महल की दीवारों से क्रूर, दर्दनाक इतिहास आज भी स्पंदित है। यहां जालीदार दीवारों से निर्मित संगीत कक्ष है, जो राजा की संगीत प्रियता को भी दर्शाता है। इतिहास की ये इमारतें मानव के सर्जनात्मक और विध्वंसक दोनों रूप को उजागर कर देती है। राजा मानसिंह ने अपनी प्रेयसी रानी गूजरी के लिए गुजरी महल का  भी निर्माण कराया जिसे आज संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसकी विशालता और भव्यता को देखते हुए मुग़ल बादशाह बाबर ने ‘ हिंद के किले के हार का मोती कहा ‘।
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सामरिक दृष्टि से किले की महत्ता

ग्वालियर के  इस  किले को भारत का जिब्राल्टर कहे जाने के पीछे का मुख्य कारण इसका सामरिक महत्व है। मध्य भारत की विंध्य की इन ऊँची पहाड़ियों से समस्त मैदानी इलाके पर नज़र  रखी जा सकती थी। इसके चलते यह मध्यकाल की शुरुआत से ही मध्य भारत  की केन्द्र बनकर उभरा। तोमर राजवंश के शक्तिशाली राजा, राजा मानसिंह के समय ग्वालियर अपनी भौतिक स्थिति के कारण अपने सामरिक महत्व को प्राप्त कर चुका था। 

 ग्वालियर किले से गुलाम वंश का कितना है संबंध?

किले की स्थापना के 89 सालों तक पाल वंश ने राज किया। पाल वंश के बाद गुर्जर प्रतिहार वंश ने शासन किया। 1023 ई. में मोहम्मद गजनी  ने आक्रमण किया लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। 1196 ई. में लंबी घेराबंदी के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस किले को अपने अधीन कर लिया लेकिन 1211 ई. में उसे हार का सामना करना पड़ा। 1231 ई. में ऐबक के गुलाम वंश का संस्थापक इल्तुतमिश ने इसे पुनः अपने अधीन कर  लिया।

कौन है वीरसिंह देव?

‘ वीर सिंहावलोकन’ में देववर्मा को ‘भूपति’ कहा गया है, परंतु वह एक स्वतंत्र शासक नहीं थे। वो फिरोजशाह तुगलक के जागीरदार थे। इन्हीं देववर्मा के पुत्र वीरसिंह देव ने तोमर वंश की स्थापना की एवं पहला स्वतंत्र शासक था। उसने ग्वालियर के आधिपत्य को  दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन सिकंदर शाह से प्राप्त किया था। इस वंश डूंगरेद्र सिंह के राज्यकाल में दिल्ली सुल्तान मुबारक शाह द्वारा पहला आक्रमण 1425-27 ई. में किया गया और दूसरा आक्रमण 1429-30 ई. में किया गया तत्पश्चात  डूंगरेंद्र सिंह दिल्ली सल्तनत का मित्र व सामंत बन गया। तोमर राजवंश के सबसे प्रतापी राजा मानसिंह हुए जिनका समय 1486 से 1517 ई. के बीच ठहरता है। उन्हें दिल्ली के  बहलोल लोदी, सिकंदर लोदी, इब्राहिम लोदी से युद्ध करना पड़ा।

इब्राहिम लोदी ने कब किया ग्वालियर किले पर कब्जा?

1517 ई. में इब्राहिम लोदी ने ग्वालियर का किला जीत लिया और इसी युद्ध में राजा मानसिंह की मृत्यु हो गई। मानसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र विक्रमादित्य सिंहासन पर बैठा, जो पानीपत के प्रथम युद्ध (1526 ई.) में मारा गया। 

ग्वालियर किले का कौन है अंतिम तोमर वंश का राजा?

तोमर वंश के अंतिम राजा रामसिंह के मेवाड़ चले जाने पर  ग्वालियर किले पर अक़बर का पूर्ण अधिकार हो गया। और 1754 ई. तक ग्वालियर क्षेत्र पर मुगलों का ही आधिपत्य रहा। 1761 ई.में गोहद के राणा लोकेंद्र सिंह ने महादजी सिंधिया को पराजित कर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। पानीपत के तीसरे युद्ध में महादजी सिंधिया ने भाग लिया। 1765 ई. में महादजी सिंधिया ने राणा लोकेंद्र सिंह से ग्वालियर का किला पुनः प्राप्त करने में सफलता पाई। 

ग्वालियर के सिंधिया वंश का कैसे विस्तार हुआ?

अपनी सूझबूझ  तथा मराठा शक्ति को अपनी आक्रामक राज्य विस्तारवादी  नीति  से  मालवा और मध्य भारत पर प्रभुत्व कायम किया इसी के चलते महादजी सिंधिया को ग्वालियर राजवंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। 1810 ई. में दौलत राव सिंधिया ने लश्कर नगर की स्थापना की। 1810 में ही उज्जैन के स्थान पर दौलत राव सिंधिया ने लश्कर (ग्वालियर) को अपनी राजधानी बनाया। 1817-18 ई. में दौलत राव ने अंग्रेजों के साथ ग्वालियर की संधि की  जिसके तहत सिंधिया अंग्रेजों के अधीन हुए और स्वतंत्रता तक अंग्रेजों के रजवाड़ों में शामिल रहा।

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राजवंशों के लिए ये किला क्यों महत्वपूर्ण रहा?

ग्वालियर के किले ने सामरिक दृष्टि से भारत के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिना इस किले की सहायता के दिल्ली से मालवा और अन्य दक्षिण भारत के क्षेत्र पर शासन नहीं किया जा सकता था। मुगल काल में यह किला एक सैनिक छावनी के रूप में कार्य करता था। इसके महलों को कैदखाने के रूप में बदल दिया गया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई द्वारा ग्वालियर पर अधिकार कर लिया गया। तथा यहीं महारानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गई। आज भी इस किले की उजड़ती हुई भव्यता  मानव के संघर्षों की गाथा बयां कर रही है।

ग्वालियर के सांस्कृतिक महत्व का केंद्र

जितना  इतिहास में यहां राजनीतिक उठा पटक का खेल चलता रहा उसके साथ ही यह किला धार्मिक विश्वास और संस्कृति के उन्नयन का भी साक्षी है। 7 वीं शताब्दी से लेकर 15 वीं शताब्दी के  मध्य इस गोप गिरि की पहाड़ी पर अनेक जैन मूर्तियों को उकेरा गया जिनकी शोभा और विशालता आश्चर्यजनक है। तोमर राजवंश के  राजाओं के द्वारा किले की दीवारों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनाई गई । तोमर वंशी राजा कला प्रेमी व साहित्य अनुरागी थे उन्होंने अपने राज्य में अनेक विद्वान कवियों, साहित्यकारों को आश्रय दिया।  मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा गुरुद्वारा  ‘ दाता बंदी छोड़ ‘ गुरु द्वारा भी ग्वालियर किले के भीतर स्थित है। अतः कहा जा सकता है ग्वालियर  किला हिन्दू धर्म के साथ साथ सिख धर्म और जैन धर्म की आस्था का केंद्र रहा है ।

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