खत्म होने की कगार पर सिंगरौली का वजूद! क्या संपदा बन रही भीषण विपदा?

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काले हीरे से भरपूर मध्य प्रदेश का सिंगरौली प्रदेश का 50वां जिला है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जिले की कुल आबादी करीब 11 लाख से अधिक है। इसके गर्भ में अकूत कोयले के भंडार हैं। इसी वजह से इसे ‘एनर्जी कैपिटल’ भी कहा जाता है। 2008 में इसे सीधी से अलग करके एक नया जिला बना दिया गया था। ऐतिहासिक रूप से यह क्षेत्र बघेलखंड का हिस्सा है। इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र अपार प्राकृतिक और खनिज संपदाओं से संपन्न है।

लेकिन इस संपन्नता की यहां के स्थानीय लोगों को दशकों से बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। जिस सिंगरौली के कोयले को जलाकर देश के कोने-कोने को रोशन करने का काम किया जा रहा है, उसी जिले के मूल निवासी इसकी बड़ी कीमत चुका रहे हैं। यहां के स्थानीय लोग भयंकर वायु प्रदूषण के साथ छह दशकों से विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। जिसे सरकारें विकास कह रही हैं, यहां के मूल निवासी इसे विनाश कह रहे हैं।

विस्थापन की शुरुआत

सिंगरौली के अतीत में यदि आप जाएंगे, तो विस्थापन की शुरुआत ही विकास के नाम पर हुई थी। इसका प्रारंभ आज़ादी के बाद 1954 के दशक में रिहंद बांध के निर्माण से हुआ था। इस बांध की गोद में 146 गांव समा गए। ये पूरी तरह जलमग्न हो गए। इन गांवों में रहने वाले लोगों के घर, सपने सब डूब गए। इसके बदले में देश को बिजली मिली और सिंगरौलीवासियों को असहनीय दर्द देने वाला विस्थापन।

रिहंद बांध की वजह से 1985 तक करीब 3 लाख लोगों को विस्थापन का सामना करना पड़ा। करीब एक लाख लोगों को जबरन विस्थापित होना पड़ा। 1987 तक हजारों परिवारों को तो चार से पांच बार विस्थापित होना पड़ा। ज़रा सोचिए, विकास के नाम पर जो परिवार पांच-पांच बार अपना आशियाना बदलने को मजबूर हुए होंगे, उनकी मनोदशा कैसी रही होगी?

ऐसा नहीं कि लोगों ने विस्थापन सरलता से और अपनी इच्छा से स्वीकार किया हो। जब रिहंद बांध को लेकर 1961 में लोग विरोध प्रदर्शन करने गए, तो पुलिस द्वारा उन्हें जबरदस्ती घर भेजा गया। बांध का गेट बंद कर दिया गया। विस्थापित जनों की आवाज़ को दबा दिया गया। मजबूरन लाखों परिवार को एक ऐतिहासिक विस्थापन स्वीकार करना पड़ा। लेकिन शायद उस समय स्थानीय लोगों को इस बात की भनक भी नहीं थी कि यह तो महज़ एक शुरुआत है। विकास के नाम पर सिंगरौली को भविष्य में और भी कई विस्थापन सहने पड़ेंगे।

जब डूब गए सपने

सिंगरौली में विस्थापितों के मुद्दे पर काम करने वाले अरविंद्र द्विवेदी कहते हैं कि सन 1962 में रेनूकुट की पहाड़ियों को बांधने के बाद जब बरसात आई तो रेण नदी का पानी फैलकर सरदार वल्लभभाई पटेल सागर बन गया, जिसे आज रिहंद बांध के नाम से भी जाना जाता है। यह घटना मानो दुखों का पहाड़ टूटने जैसी थी।

हजारों घर, सैकड़ों गांव और लाखों लोग जो इस क्षेत्र में रहते थे, सब उजड़ने लगे। चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। लोग समझ नहीं पा रहे थे कि पहले अपने परिवार को सुरक्षित ले जाएं, बैल और पशुओं को बचाएं या घर का सामान उठाएं। जाएं भी तो कहां? क्योंकि मैदानी क्षेत्रों में पानी भर रहा था और बाकी इलाके घने जंगलों और पहाड़ों से घिरे हुए थे।

मुश्किल से दो वर्ष भी नहीं बीते थे कि सरकार की नज़र सिंगरौली के जंगलों और पहाड़ों पर भी पड़ गई। सन 1965 में झींगुरदह कोयला खदान परियोजना शुरू की गई और इसके साथ ही पहाड़ों के किनारे बसे लोगों को भी सरकार ने हटाना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे नई-नई खदानें खुलीं और हर बार लोगों को फिर से विस्थापित होना पड़ा।

फिर तो यह सिलसिला चलता ही रहा—दर्जनों खदानें, पावर प्लांट बने। आज छह दशक बीत चुके हैं, लेकिन हालात अब भी वैसे ही हैं: लगातार विस्थापन, ज़मीनों की लूट, कोयले का जहरीला प्रदूषण, राखड़ का ढेर, लोगों की घटती उम्र, एसिड और रसायनों से भरा पानी, दुर्घटनाएँ, भ्रष्टाचार, जलाशयों का जहरीला पानी, दम तोड़ती नदियाँ। जंगल और पहाड़ अब खंडहर में बदल चुके हैं। लोगों का जीवन नरक जैसा हो गया है। असली पर्वत मानो गायब हो गए हैं। इंसान ही नहीं, जानवर भी पलायन कर चुके हैं। ऐसा लगता है जैसे सैकड़ों गिद्ध सिंगरौली पर टूट पड़े हों, सब कुछ नोच डालेंगे और कुछ भी शेष नहीं रहेगा।

विस्थापन की निरंतरता

एनटीपीसी के थर्मल प्रोजेक्ट्स और अन्य विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापन का क्रम सतत चलता रहा है। हैरानी वाली बात यह रही कि विस्थापित लोगों को न उचित मुआवज़ा दिया गया, न विस्थापन की कोई प्रभावी कार्ययोजना सरकार के पास थी।

गौरतलब है, सरकार की बड़ी परियोजनाओं और विकास के लिए कई बार विस्थापन ज़रूरी होता है, लेकिन यदि विस्थापित लोगों को जीवन-निर्वाह के लिए मूलभूत सुविधाओं से ही वंचित होना पड़े, तो ऐसा विकास असंतुलित विकास कहलाएगा। और यदि विकास प्रकृति और समाज के बीच संतुलन स्थापित नहीं करता, तो उसे त्रासदी बनने में देर नहीं लगेगी।

इन छह दशकों में हुए विस्थापन की बात करें तो इनका बड़े स्तर पर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ा है। आदिवासी समुदायों जैसे गोंड, बैगा और अन्य विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं। क्योंकि विस्थापन की वजह से उन्हें अपनी ज़मीन, जंगल और घर सब छोड़ना पड़ा। लंबे समय तक पुनर्वास की कमी ने कई परिवारों को मानसिक और सामाजिक संकट में डाल दिया।

उजड़ जाएगा मोरबा

सिंगरौली में जनसरोकार के मुद्दों पर पिछले 10 वर्षों से नजर रखने वाले पत्रकार देवेंद्र पांडेय बताते हैं कि विस्थापन के अब तक के सभी पुराने जख्म एक बार फिर से हरे हो गए हैं। अपनी ज़मीन, अपना घर और अपना मोहल्ला छोड़ने की कसक लोगों को बार-बार कचोट रही है।

स्थानीय मोरबावासी विस्थापन के दर्द से कराह रहे हैं। क्योंकि सिंगरौली के मोरबा में ज़मीन के नीचे विशालकाय कोयले का भंडार छिपा है। ज़मीन के नीचे छिपी यह संपदा अब विपदा बन चुकी है।

आंकड़ों के अनुसार, शहर की ज़मीन के नीचे 2,724 मिलियन टन कोयला दबा पड़ा है। इसके खनन की मंज़ूरी केंद्र सरकार दे चुकी है, जिसके लिए सिंगरौली शहर की 1,485 हेक्टेयर ज़मीन अधिग्रहित की जा रही है। नार्दर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) यहां कोयले के विशाल भंडार का खनन करेगी। इसके लिए एनसीएल को कोल इंडिया बोर्ड की मंज़ूरी मिल चुकी है।

अब जल्द ही विस्थापन का कार्य शुरू होने वाला है। शहर में बने 22 हजार से अधिक मकान ध्वस्त करने के लिए बड़ा अभियान शुरू किया जाएगा। चार बड़े कॉलेज, बीस से ज्यादा स्कूल और 5,000 से अधिक छोटी-बड़ी दुकानें समेत अस्पताल सब कुछ जमींदोज हो जाएगा।

1,485 हेक्टेयर भूमि के अधिग्रहण प्रक्रिया पर करीब 30 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। वहीं, 50 हजार लोग मोरबा से विस्थापित होंगे। लेकिन विस्थापन रोको अभियान से जुड़े सामाजिक संगठनों का कहना है कि 50 हजार नहीं, बल्कि करीब 1 लाख लोग मोरबा से विस्थापित होंगे।

लेखक: तरुण चतुर्वेदी

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