भारत में कई जगह अच्छी और बुरी रीतियां चलन में हैं। जिससे समाज में निवास कर रहे लोगों को एक समाजिक दबाव महसूस करना पड़ता है । इन्हीं कुरीतियों में से एक है मृत्यु भोज । लेकिन मध्यप्रदेश के शिवपुर जिले से एक अच्छी खबर सामने आइए है। ग्राम दाबरभाट में स्व. अर्जन सिंह यादव के निधन पर परिजनों के द्वारा तेरहवीं नहीं करने के साहसिक निर्णय को सराहा और इस सामाजिक कुरीति के खिलाफ लडऩा भी एक जंग बताया। यादव समाज के वरिष्ठ लोगों ने पूज्य दादा श्री अर्जुन सिंह यादव जी (पूर्व सरपंच) की तेरवीं न करने के लिए परिवार के लोगो से आग्रह किया। समाज की बात को मानते हुए पूज्य दादा के छोटे भाई जयहिन्द यादव, पुत्र सूरजभान यादव (जनपद सदस्य) फौजी केदार यादव, महेंद्र यादव (मिन्दू) सभी लोगों ने समाज के वरिष्ठ जनों की बात पर सहमति व्यक्त की और अपने पूज्य पिता स्व. दादा श्री अर्जुन सिंह यादव जी(पूर्व सरपंच) की तेरवीं न करने का निर्णय लिया। दोस्तों आइए जानते हैं द स्टोरी विंडो में मृत्यु भोज के बारे में।
परिवार का मृत्यु भोज का किया बहिष्कार बड़ा निर्णय
एक छोटी सी हिम्मत की मृत्युभोज न करके एक कुरीति पर रोक लगाने के सफल प्रयास का आरंभ किया ,मृत्यु भोज को रोकने के लिए कोई अपने से पहल करना नही चाहता ओर आगे से आगे सिलसिला जारी रहता है । चाहता तो हर कोई है कि बंद होना चाहिए पर लोग ,समाज क्या कहेंगे इस डर से कदम नही उठाते। मृत्युभोज जैसी कुरीति ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि लोग अब इसे प्रतिष्ठा से जोड़कर देखने लगे है। जो जितना बड़ा सामाजिक प्रतिष्ठित व्यक्ति उसका उतना ही बड़ा वृहद मृत्युभोज का आयोजन,,,, किस होड़ में लगे हैं हम,,, एक कुरीति को पोषित करने में। वाकई बहुत बड़ा और साहसी,प्रसंशनीय अनुकरणीय निर्णय है। इस निर्णय को प्रोत्साहित करना ही पूज्य दादा को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
हृदय से धन्यवाद सूरजभान सिंह यादव जी (जनपद सदस्य), केदार सिंह यादव जी (फौजी), महेन्द्र यादव आदि ने ऐसे निर्णय लेना वाकई साहस का काम है। ऐसे बहुत लोग हैं जो मृत्यु भोज का विरोध करते हैं मीटिंग में संकल्प लेते हैं और लोगो को संकल्पित कराते हैं पर अपने सगे संबंधियों आदि के दबाव में, मृत्युभोज को न चाहते हुए भी आयोजित करते हैं।
मृत्युभोज एक अभिशाप है एक ऐसी सामाजिक कुरीति है जिसे न चाहकर भी अपनाने को समाज मजबूर हैं।
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मृत्यु भोज की परंपरा कैसे बनी?
कुछ बुजुर्गो से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि पुराने समय से तो ऐसा होता रहा था और इस तरह की परंपरा थी कि कि जिस परिवार में मृत्यु हुई होती है वहाँ 12 दिन के शोक तक भोजन ही नहीं बनता था बल्कि अन्य सामाजिक सदस्य उनके भोजन आदि की व्यवस्था करते हैं। लेकिन आज के समय मे यह रीति शोक संतप्त परिवार पर इन 12 दिनों तक कई प्रकार का आर्थिक बोझ डालने वाली एक कुरीति मात्र बन कर रह गयी है।
क्या है पगड़ी रस्म?
आदि काल से तो यह मृतक से संबन्धित भोज होता ही नही था बल्कि किसी घर, समाज या किसी राज्य के मुखिया या राजा की मृत्यु उपरांत 12 दिन के शोक के पश्चात तेरहवें दिन उस मृतक मुखिया का उत्तराधिकारी चुना जाता था। जिसे पगड़ी रस्म या मृतक के उत्तराधिकारी की ताजपोशी या राजा के मृत्यु उपरांत नए राजा का राज्याभिषेक। यह पगड़ी रस्म या राज्याभिषेक सगे-समन्धियों एव समाज स्तर के लोगों के द्वारा किया जाता है। अर्थात यह है कि नए उत्तराधिकारी को समाज के द्वारा परिवार के मुखिया होने की स्वीकृति होती है। लेकिन आज ये परम्परा भी परिवार के छोटे बड़े सभी सदस्यों की मृत्यु उपरांत दिखावे मात्र के लिए भी एक विस्तारित रूप देकर शोक संतप्त परिवार आर्थिक बोझ के तले दबता जा रहा है।
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आखिर कैसा होता है मृत्युभोज?
यह कैसे बनाया और खाया जाता है। कैसे इसके खिलाफ एक अभियान चलाकर सीमित, आदर्श और सामाजिक कल्याणकारी बनाया जा सकता है। जिस भोजन को रोते हुए बनाया जाता है। जिस भोजन को खाने के लिए रोते हुए बुलाया जाता हैं,,! जिस भोजन को आँसू बहाते हुए खाया जाता हैं उस भोजन को मृत्युभोज कहा जाता है। जिस परिवार मे विपदा आई हो उसके साथ इस संकट की घड़ी मे जरूरी रूप से खडे़ होना चाहिए और तन, मन और धन से शोक संतृप्त परिवार का सहयोग करे और मृत्युभोज का बहिष्कार करे।
महापुरुषों ने क्यों किया मृत्युभोज का विरोध?
महापुरुषों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है जिस भोजन को बनाने का कृत्य जैसे लकड़ी फाड़ी जाती है तो रोकर, आटा गूँथा जाता तो रोकर एवं पूड़ी बनाई जाती है तो रोकर यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा। यहाँ तक कि खाना खिलाने वाला खाना खिलाता है आंसू बहा कर और खाना खाने वाला भी खाता है आंसू बहा कर।ऐसे आँसुओं से भीगे निष्कृष्ट भोजन एवं तेरहवीं भेाज का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा देनी चाहिए। जानवरों से सीखें जिसका साथी बिछुड़ जाने पर वह उस दिन चारा नहीं खाता है जबकि बुद्धीवान मानव एक आदमी की मृत्यु पर हलवा-पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है इससे बढ़कर निन्दनीय कोई दूसरा कृत्य हो ही नहीं सकता।
अर्जुन सिंह यादव की याद में बनवाएंगे श्मशान घाट
मृत्युभोज समाज में फैली कुरीति है व समाज के लिये अभिशाप है। इसका जोरदार ढंग से विरोध एवम बहिष्कार करे। ठीक इसी प्रकार जिस तरह दाबरभाट ग्राम से पूर्व सरपंच दादा स्व. श्री अर्जुन सिंह यादव जी के परिवार इस कुरीति का सामाजिक स्तर पर समाप्त कर गांव में ही दादा की पुण्य स्मृति में श्मशान घाट निर्माण कराने का जिम्मा लिया। इस मैसेज के प्रारंभ में ही महाकवि ईसुरी की चौकड़िया की पंक्ति है “ऐते हते फलाने” कुछ ऐसा कर के जाओ जिससे दुनिया याद करे। दाबरभाट ग्राम पंचायत में जो शमशान घाट का निर्माण दादा का परिवार करायेगा वो निर्माण दादा की पुण्य स्मृतियों को ताजा करता रहेगा।
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