एक आवाज जो दिल में बस जाती थी। एक विरासत जो कभी धूमिल नहीं होगी। शारदा सिन्हा, जिन्हें “बिहार की कोकिला” कहा जाता है, केवल एक गायिका नहीं थीं; वह बिहार की संस्कृति और परंपरा की जीवंत प्रतिमूर्ति थीं। आज पूरा बिहार और देश एक ऐसी आवाज़ के खोने का शोक मना रहा है, जो त्योहारों, पूजा-अर्चना, और जिंदगी के हर खास मौके को खास बनाती थी। आइए जानते है द स्टोरी विंडो पर शारदा सिन्हा की यात्रा के बारे में।
जिन लोगों ने उनकी आवाज़ को सुना है, उनके लिए शारदा सिन्हा सिर्फ एक गायिका नहीं, बल्कि एक भावना हैं। चालीस वर्षों से अधिक समय तक, उन्होंने भोजपुरी, मैथिली, और मगही लोक गीतों को अपनी आवाज़ दी। उनका संगीत त्योहारों और परिवार के समारोहों का अभिन्न हिस्सा बन गया था। शारदा सिन्हा के जाने के बाद, बिहार की सांस्कृतिक परंपरा का एक अंश भी जैसे हमसे दूर हो गया है। लेकिन उनकी आवाज और उनकी विरासत कभी फीकी नहीं पड़ेगी।
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परंपरा से जुड़ी हुई एक अनोखी यात्रा
शारदा सिन्हा का संगीत सफर एक छोटे से गांव से शुरू हुआ, जहां उन्होंने पारंपरिक गीतों को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया। उनकी आवाज़ ने छठ पूजा के गीतों को विश्व प्रसिद्ध बना दिया। हर साल छठ पूजा पर “केलवा के पात पर” जैसे गीत उनकी आवाज़ में सुनाई देते हैं, तो यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि एक प्रार्थना, एक भक्ति की भावना बन जाती है।
अपने पूरे करियर में, उन्होंने कभी अपनी जड़ों से समझौता नहीं किया। भोजपुरी, मैथिली, और मगही जैसे भाषाओं में गाते हुए उन्होंने इन बोलियों को भारतीय संगीत का महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया। इस डिजिटल युग में जहां लोक संगीत के प्रति लोगों की रुचि कम हो रही है, उन्होंने इस कला को जिंदा रखा।
संगीत जो कभी पुराना नहीं होगा
कुछ कलाकार सिर्फ गाने बनाते हैं; लेकिन शारदा सिन्हा ने एक धरोहर बनाई। उनके गीतों में सादगी है, जो त्योहारों में उमंग भर देती है। चाहे छठ पूजा हो, शादी समारोह हो या कोई खास अवसर, उनका संगीत उन लम्हों को यादगार बना देता है। उनके गीतों की गूंज सिर्फ बिहार में ही नहीं, बल्कि देश-विदेश में भी है।
उनके कुछ प्रसिद्ध गीत, जैसे “सुगा जानी,” “प्यावा से पहिले हमार रहलु,” और “सासर में सुहावन लागेला” लोक गीतों के खजाने में अनमोल रत्न की तरह हैं। यह गीत केवल संगीत नहीं, बल्कि प्रेम, परिवार और परंपरा के प्रतीक बन गए हैं।
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लोक संगीत में एक मूक क्रांति
फास्ट बीट्स और फ्यूजन के इस दौर में, शारदा सिन्हा ने लोक संगीत के प्रति अपनी अडिग निष्ठा से एक मूक क्रांति की शुरुआत की। उन्होंने कभी ट्रेंड्स का पीछा नहीं किया, बल्कि लोक संगीत को अपने अंदाज़ में लोगों तक पहुँचाया। उनकी गूँज बिहार से निकलकर पूरी दुनिया तक पहुँच गई और लोक संगीत के महत्व को दोबारा स्थापित किया।
उन्हें मिले पुरस्कार, जैसे पद्म श्री और पद्म भूषण, इस बात का प्रमाण हैं कि उन्होंने जो मिशन अपनाया, उसमें उन्होंने कितनी सफलता पाई। लेकिन उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार हमेशा अपने लोगों का प्यार और अपनी कला का सम्मान रहा है।
मंच से परे: एक साधारण लेकिन प्रेरणादायक जीवन
शारदा सिन्हा का जीवन कहानी है संघर्ष, मेहनत और साधना की। साधारण पृष्ठभूमि से आकर उन्होंने एक पुरुष-प्रधान संगीत जगत में अपनी जगह बनाई। वह न केवल बिहार बल्कि पूरे भारत में कई महिला कलाकारों के लिए प्रेरणा बनीं। उनकी सादगी, विनम्रता, और कला के प्रति समर्पण ने उन्हें अपने समय के महानतम कलाकारों में शामिल किया।
एक आखिरी सलाम
आज शारदा सिन्हा के जाने से एक युग का अंत हो गया है। लेकिन उनकी धरोहर, उनके गीत, और उनके विचार हमेशा हम सभी के दिलों में रहेंगे। यह उनकी आवाज़ है जो आज भी छठ के घाटों पर गूंजेगी, हर समारोह में उत्सव का माहौल बनाएगी, और हर उस व्यक्ति को अपनी जड़ों की याद दिलाएगी जो उनसे कभी भी जुड़ा हुआ है।
शारदा सिन्हा हमारे साथ नहीं हैं, लेकिन उनका संगीत अमर रहेगा। इसलिए यह एक अलविदा नहीं, बल्कि एक “धन्यवाद” है – उस संगीत के लिए, उन यादों के लिए, और उस अनमोल धरोहर के लिए जिसे उन्होंने हमारे लिए छोड़ा है।
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